सोने के लिए ज़मीन थोड़ी सी , उड़ने के लिए थोड़ा सा आसमान
पत्थरों पर उंगलियाँ , कोरे कागज पे अंगूठे के निसान
ऐसा कब तक हिन्दुस्तान , ऐसा कब तक हिंदुस्तान |
क्यूं लाखों ज़ेहन यहाँ आज भी इन्कलाब ढूंढतें हैं
कुछ मासूम चेहरें जो ख़्वाबों में किताब ढूंढतें हैं
जीतें-जी आशियाँ क्या ?, मर कर भी नसीब नहीं होता शमसान
ऐसा कब तक हिन्दुस्तान , की ऐसा कब तक हिंदुस्तान ||
गांव के देश में गांव को छोड़कर, क्यूं भागतें हुए सब शहर आ रहें हैं
कौशलता कौन ढूंढें संभावनाओं के इस अकाल में
अमूमन सभी जाहिल है, यहाँ उस जंग में,
जिसमें मर कर भी बचानी होती है ख़ुद की जान
ऐसा कब तक हिन्दुस्तान , ऐसा कब तक हिंदुस्तान |||
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