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कविता: संजिदा बात

सूने मसानो से कर रही है
कोई संजिदा बात जैसे

खिड़की से झांकती खामोश लड़की
पढ़ रही हो रात जैसे
चाहता हूं पूछ लूं मैं
हाल उसका, पास जाकर

खैर, उसको क्या ही मिलेगा
बारे में अपने कुछ बताकर
वो क्यूं करेगी जिक्र जब
मिसीसिपी, वोल्गा का
कोई ठिकाना ना रहा

जब ना रहा माया, इंका
हड़प्पा, सवाना ना रहा
उल्टे कहीं वो पूछ ना दे
क्या रोमन फौजों ने पाया?
काले गुलामो के घर जलाकर
कौन सा रस्ता बनाया?

घने जंगलों के सर जलाकर
या मोड़ कर सिंधु का पथ
यूनानियों के आखर जलाकर
रेंगकर बेशक, पर चल रही है

ये रात काली ढ़ल रही है
लौट जाएंगी ये पहरें
स्याह शातिर धूंध लेकर
जैसे लौट गया था वो वक्फा
कज्जाको के खून का
बूंद-बूंद लेकर

वक्त के कंधे पर है
सौ सवालों के संताप
मसानों से यूं ही चलती रहेगी
कुछ संजिदा, कुछ अनर्गल प्रलाप

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