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कविता: ख़ैबर-पख़्तून

ख़ैबर-पख़्तून

लम्हें जैसै गुजरते चले जा रहे हैं
ख्वाब आंखो से झड़ते चले जा रहे हैं
हमको तो लेकर सहर लौटना था
हम उल्टे सफर क्यूं चले जा रहे हैैं

ख्वॉब ख़ैबर-पख़्तून
धुन मिर्गी सी धुन, वाह
दिन सीरिया-इराक
रात..खूनी रंगून
नच ओ बागड़-बिल्ले
नच ओ वहशी बबून
नच ले, नच ले ख्वाबो को रच ले
दुनिया पे हंस ले…हा..हा

ये जो तमाशा है
इसमे हताशा है
लड़ ले हताशो से
लहू के फांसो से
दुनिया डराती है

जख्मों से लाशों से
तूने तो खेला है
गोली, गड़ासों से
डर जैसा डर कैसा
ग़म हस्बमामूल
तुमपे असर कैसा

रिक्त खानों को भरते चले जा रहे हैं
हम मशानों को भरते चले जा रहे हैं

चले जा रहे हैं तानो-बानो को बूनते
चले जा रहे हैं फ़सानो को बूनते

खुद से लड़ते-झगड़ते चले जा रहे हैं
भूख से एड़ियां रगड़ते चले जा रहे हैं

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