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कविता: मुरझा कर फूलों का गिरना

मुरझा कर फूलों का गिरना
टूटी शाखें देख रही है्ं
वो शमशान से उठता धूआँ
बहती राखें देख रही हैं
अंधी आंखे देख रही हैं
घूप्प सलाखें देख रही हैं

हम और तुम भी देख रहे हैं कैसे
लाशों पर दल बल बनता है
किसी पार्टी का चमक पताका
तब जाकर कहीं उछलता है

वो एक आग सा इस्तेहार
जब अखबारों में चलता है
पढ़कर जिसको बच्चा-बच्चा
खालिश जहर उगलता है

घुंघट-बुर्कों तक सिमटी दुनिया
नजरें बचा के देख रही हैं
सिम्त हवाई लफ्जों से जनता
धोखा खाकर देख रही है

हम भी तुम भी देख रहे हैं
उनके खून से सत्ता सींचा जाता है
जिनके पैसे से नौकरशाही का
पत्ता-पत्ता सिंचा जाता है
और जमींं से दूर विचारें
आग लगाकर देख रही है

मुरझा कर फुलों का गिरना

टूटी शाखे देख रही हैं
अंधी आंखे भी देख रही हैं
घुप्प सलाखें देख रही है

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